गुरुवार, 27 अगस्त 2009
ना आना इस देश...लाडो
आशीष अग्रवाल
दिल्ली के लिए यह बेहद खुशगवार कर देने वाली खबर है कि यहां लड़कियों की तादाद पुरुषों के मुकाबले आगे निकल गई है। ताजा आकड़ों में इस साल प्रति हजार लड़कों के जन्म पर लडकियों की जन्मदर 1004 हो गई है। परन्तु अफसोसजनक रूप से दूसरे राज्यों के साथ ऐसा नहीं है। खासकर पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, बिहार और उड़ीसा में हालात बद से बदतर हो रहे हैं।
इन राज्यों में कोख में ही बेटियों के मारने की घटनाओं में तेजी से बेतहाशा वृद्धि हुई है। राष्ट्रीय जनगणना के आकड़ों के अनुसार सन 1991 के मुकाबले सन 2001 में लड़कियों की संख्या में और भी कमी आई थी। मोटे तौर पर एक अनुमान के मुताबिक देश में हर रोज दो हजार कन्या भ्रूण हत्याएं हो रही हैं।
सदियों से स्त्री को देवी स्वरूपा मानने वाली भारत भूमि में लड़कियों की घटती तादाद बेहद चिंता का विषय है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की भारत प्रतिनिधि नेसिम तुमकाया बताती हैं कि इसके लिए भारतीयों की वह बदलती मानसिकता है जो लडकियों को बोझ समझती है। इसके पीछे उनके अपने तर्क है। इनमें लैगिक भेदभाव, शिक्षा, स्वास्थ्य संबंधी देखभाल, महिला अधिकार, सम्मान और सुरक्षा से जुडे मुद्दे प्रमुखता से देखे जा सकते हैं। यही वजह है कि लोगों में लिंग परीक्षण की प्रवृति बढी है। इसी मसले पर फ्रेंडस सोसायटी फॉर रिहेब्लिटेशन, इलनेस, एजुकेशन, नेचर एण्ड डवलपमेंट के वेस्ट इंडिया कार्यक्रम संयोजक अनिल रेजा का कहना है कि लडकियों को कोख में मार डालने जैसी घटनाएं भी मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग के परिवारों में ज्यादा हैं। वहां भौतिक साधनों - संसाधनों की बढती चाहत और सामाजिक आडम्बरों के प्रति अत्यधिक लगाव की वजह से इस प्रकार की विकृत मानसिकता पनप रही है। दूसरे शब्दों में और अमीर बनने की होड़ के साथ सामाजिक रूतबा रखने के झूटे दंभ के चलते एवं दहेज, पैतृक संपत्ति में बेटी का समान अधिकार, बेटों से वंश चलाने जैसी मानसिकताओं के कारण समाज में बेटियों के प्रति बेरूखी नजर आ रही है। अनिल बताते हैं कि हम बेटियों को बचाने की लिए ´स्वाभिमान जगाओ - बेटी बचाओ´ के नाम से मुहिम चला रहे हैं। इस अभियान के तहत उन्होंने भारत सरकार को पत्र लिखकर कोख में बेटियों की हत्या करने और करवाने वाले पर हत्या का मुकदमा दर्ज कर सजा देने की मांग की है।
जीवों का अपने बच्चों के प्रति आचरण पाषाण युग से वर्तमान काल तक का सफर तय कर अपने को सभ्य कहने वाले मानव अपने ही बच्चे के प्रति इतना क्रूर कैसे हो सकता है। इसके लिए बेटियों की भ्रूण हत्याओं के मद्देनजर कुछ समय से ´जीवों के अपने बच्चों के प्रति आचरण´ पर अध्ययन करने पर मैंने जाना कि किस प्रकार प्रकृति में छोटे छोटे जीव भी अपने बच्चों की रक्षा के प्रति किस प्रकार विरोधात्मक प्रतिक्रियाएं व्यक्त करते हैं। उनके पैदा होने से लेकर लालन पालन में किस प्रकार की सावधानियां रखते हैं एक छोटी सी चिडिया गौरैया के अंडो या बच्चों को अगर छेडने की कोशिश की जाए तो वह अपने से कई गुना बडे जीव पर भी हमला बोल देती है। जंगली जीवों का स्वभाव तो प्राय: हिंसात्मक होता ही है किन्तु गाय, भैंस, बंदर, बिल्ली, कुत्ता जैसे सीघे सादे घरेलू जानवर भी अपने बच्चों की सुरक्षा की खातिर हिंसात्मक हो जाते हैं। मादा बंदर का अपने बच्चों के प्रति लगाव एक मिसाल की तरह है। वह बच्चे की मृत्यु हो जाने के उपरान्त भी उसे अपने से चिपकाए घूमती है। अलबत्ता कोयल एक ऐसी प्राणी है जो अपने अंडों को दूसरों (कोवे) के भरोसे छोड़कर नििश्चंत हो जाती है। समस्त जीवों में मादा सर्प ही ऐसा प्राणी है जो भूख लगने पर अपने बच्चों को ही खा जाती है। अफसोस की बात है कि ये कौन सी भूख है जो मानव को सर्प के समान बना रही है। हालांकि देश में लिंग परीक्षण और भ्रूण हत्या गैरकानूनी बना दिया गया है। तथापि सामाजिक रूप से आवश्यकता व्यक्ति की मानसिकता बदलने की है। इस संदर्भ में मानवीय स्वभाव का मनोवैज्ञानिक और सामाजिक विश्लेशण बेहद जरूरी है।
(विस्फोट डॉट कॉम पर भी आप इस ख़बर को पूरी पढ़ सकते हैं)
मंगलवार, 25 अगस्त 2009
शुक्रवार, 21 अगस्त 2009
बदनाम बस्ती की लाचार बेटियां
देश में कोई 1100 बदनाम बस्तियां हैं जिन्हें रेड लाईट एरिया कहा जाता है। इन बदनाम बस्तियों में 54 लाख बच्चे रहते हैं. इन 54 लाख बच्चों में कोई 60 फीसदी लड़कियां हैं. बदनाम बस्तियों की ये बेटियां होनहार तो हैं लेकिन लाचार हैं. वे पढ़ना चाहती हैं और मुख्यधारा का जीवन जीना चाती हैं. लेकिन परिस्थियां उनके लिए सबसे बड़ी बेड़ी नजर आती है. यहां पैदा होनेवाली बेटियों की मां भी अपनी बेटियों को सम्मान की जिंदगी देना चाहती हैं लेकिन एक सीमा के बाद उनके हाथ भी बंधे नजर आते हैं. इन इलाकों में वेश्यावृत्ति में शामिल महिलाएं न केवल अपने बच्चों को पालना चाहती हैं बल्कि उनको एक बेहतर भविष्य देना चाहती हैं. अपवाद स्वरूप ऐसे उदाहरण भी नजर आते हैं जब बदनाम बस्तियों की बेटियों ने नाम कमाया है लेकिन यह अपवाद ही है. आशीष अग्रवाल की रिपोर्ट-
महज छह या सात साल की उम्र होगी सना की। सौ तक गिनती, इंग्लिश अल्फावेट और छोटी - छोटी पोइम धडाघड बोलती है। दिल्ली के बदनाम जीबी रोड के कोठा नंबर 59 में रहने वाली सना को पढने का शौक है। स्कूल के नाम से उसकी आंखों में चमक आ जाती है। वह पढना चाहती है। लेकिन उसके लिए शायद पढना मुमकिन नहीं। उसका कोई बाप नहीं है और मां अब कमाने की स्थिति में नहीं हैं या फिर उतना नही कमा पाती जिसमें कि अपनी बेटियों को बेहतर िशक्षा दिलवा सकें। दिल्ली के जी बी रोड स्थित रेड लाइट एरिया के दूसरे कोठों पर भी छोटी छोटी उमर की लडकियां हाथों में कापी किताब लिए िशक्षा के साथ साथ अपने भाग्य लिखने की कोिशश कर रही हैं। इनमें से कुछ अभी स्कूल जाती हैं और ज्यादातर का स्कूल से नाता छूट टूट चुका है। भले ही आप को यह सब अटपटा सा लगे किन्तु सच यही है इस बदनाम बस्ती में रहने वाली वेश्याओं की इन नन्हीं बेटियों का, जिनकी आंखों में सपने तो हैं लेकिन उन्हीं आंखों के सामने हैं उनके मजबूर हालात। आखिर क्यों ?
`इस प्रश्न के जबाव में रूबीना बताती है कि साहब अगर हमारे पास पैसे होते तो हम इतनी दूर से इस गंदगी में ही क्यों आते। जो थोडा बहुत हम कमाते हैं उसमें हमारा खर्चा और फिर बाकी बचा हमें अपने घर भी देना पडता है। और दिल्ली में पढाई वैसे ही बहुत महंगी है। ऐसे में हम क्या करें।´ तो क्या आप अपनी बेटियों को भी इसी धंघे में? प्रश्न पूरा होने से पहले ही सीमा बताती है कि `मैंने तो अपने एक बच्चे को अपने गांव भेज दिया है और एक छोटी बेटी है जो अभी तीन साल की है एक साल बाद उसे भी गांव भेज दूंगी।´ किन्तु सीमा जैसी व्यवस्था सलमा के साथ नहीं है। उसने तो `जो खुदा को मंजूर´ कह कर अपनी बेवसी की मुहर लगा दी। इन वेश्याओं की बेटियों के बारे में हमें ज्यादा जानकारी मिलि यहां रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता शेरसिंह से। उसने हमें बताया कि साहब यहां लडकियां है जो पढ रही है और कुछ तो नौकरी कर रही हैं।
दो लडकियां नोएडा में एक मल्टीनेशनल बीपीओ में है एक लडकी रोहिणी कोर्ट में बतौर क्लर्क काम करती है और भी लडकियां है जो पढ़ रही हैं उनमें से कई हमेशा फर्स्ट भी आती है। लेकिन साहब बस ऐसी गिनी चुनी ही हैैं। बाकी तो मेरे सामने पैदा हुई और अब अपनी मां की तरह इसी धंधे पर। मुझे तो चालीस साल से ज्यादा हो गए देखते हुए। यहां सब ऐसे ही चलता है। क्या सरकार ने कुछ नहीं किया आज तक ? अजी साहब सरकार ने क्या करना है सब कहने सुनने की बातें हैं और सरकार के काम काज का तरीका तो आप जानते ही हैं। एक राशन कार्ड बनवाने के लिए दफ्तरों के कितने चक्कर काटने पडते हैं। आप भी जानते हो। ऐसे में ये वेश्याएं, एक तो ज्यादातर अनपढ हैं ऊपर से अपनी रोजी रोटी छोड कर स्कूल में एडमिशन के लिए कहां धक्के खाती फिरेंगी। फिर यहां का माहौल तो आप देख ही रहे हो बडा होता बच्चा क्या समझता नहीं कि उनकी मां क्या करती है। ऐसे माहौल में कौन पढ पाएगा भला।
गैर सरकारी संगठन फ्रेण्ड्स सोसायटी फॉर रिहेब्लिटेशन, इलनेस, एजुकेशन, नेचर एण्ड डवलपमेंट की प्रोग्राम कॉर्डिनेटर पूजा गुप्ता के अनुसार देश के 1100 रेड लाइट एरिया में रहने वाली वेश्याओं के बच्चों की संख्या करीब 54 लाख हैं। इनमें भी लडकियों का अनुपात करीब 60 प्रतिशत है। इनमें से सरकारी, गैर सरकारी और निजी प्रयासों के चलते अपर प्राइमरी स्तर से इतर िशक्षा पाने वाली लडकियों की तादाद महज कुछ हजारों में ही है। सैकण्डरी के बाद के आकडे तो अफसोसजनक स्थिति में बदल जाते हैं। पूजा बताती है कि बात सिर्फ पढने तक सीमित नहीं है। जवान होती लडकियों के लिए समस्याएं और भी हैं। वोकेशनल िशक्षा के अभाव में वे कोई अन्य रोजगार करने में सक्षम नहीं हैं। इसके अलावा रेड लाइट एरिया में रहने के कारण बाकी समाज से उनका कटाव रहता है अत: किसी अच्छे आदमी के साथ शादी करके घर बसाकर सम्मानपूर्वक जिंदगी बसर करना उनके लिए कल्पना से परे है। ऐसा नहीं कि इन बिच्चयों की मासूस आंखों के सपनों से इनकी मां अनभिज्ञ हो। अपने बच्चों को बेहतर जिंदगी न दे सकने का दर्द उनके चेहरे पर साफ झलकता है। किन्तु गरीबी के साथ साथ वैश्या होने का ठप्पा लग जाने की वजह से वे समाज और सरकार से अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर पाने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाती हैं।
अपवादों को छोड दिया जाए तो इन बेटियों के नसीब को बदलने की क्षमता उनमें नहीं हैै। बस उनकी किस्मत में जिस्म बेचना है और इसी से वे बमुिश्कल अपनी गुजर बसर कर पाती हैं। वैसे भी पेट की भूख के आगे बदन का सौदा तक कर देने वाली इन वेश्याओं को पढाई लिखाई जैसी बातें बेमानी नजर आती है। अलबत्ता, अहम प्रश्न ये है कि क्या देश में लडकियों की घटती संख्या पर चिंता कर कोख में लिंग परीक्षण और भ्रूण हत्या को कानूनन अपराध घांशित करने वाली सरकार को इन लडकियों की सामाजिक सुरक्षा के दायित्व की जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए।
(नोट - पहचान छुपाने के लिए नाम परिवर्तित कर दिए गए हैं।)